Wednesday, 3 October 2018

ज़िन्दगी किताबों सी हो चली है-श्याम सगर (नाचीज)

ज़िन्दगी किताबों सी हो चली है।

बस कवर पेज अच्छा है, बाकी सफेद काग़ज़ों पर लिखें गये काले काले अक्षर।

किताबों की तरह ज़िन्दगी को भी अब पढता नही कोई। पढे कौन? पढने का वक़्त कहाँ है। जिये कौन?   जीने की फुरसत कहाँ है।

अब किताबों का साथ बस नौकरी मिलने तक है।  ज़िन्दगी भी नौकरी लगने तक ही तो है। फिर ...फिर ज़िन्दगी, जिंदगी छोड़ के सब कुछ है।

किताबों में कई कहानियां दफ़्न है। प्यार की, तकरार की इतिहास की उपहास की ज्ञान की विज्ञान की। पर उन्हें पढने की फुरसत कहाँ।

ज़िन्दगी भी हमे कई कहानियां बतलाना चाहती है। कुछ किस्से खुद कहना चाहती है, कुछ किसी और से सुनाना चाहती है।
कुछ बाते तुम्हारी, कुछ किस्से अपनों के, और वो अनगिनत कहानिया उन लोगो की जो शायद तुम्हे मिलते, अगर तुम सबकुछ हांसिल करने की अंधाधुंध दौड़ में सर जुकाए, आंखे मुंदे, कुछ देखे, कुछ महसुस किए बिना भाग रहे ना होते।
वो रेस की जिसकी कोई '"फिनिश लाइन'" नही है।  बस दौड़ ना है, हाफ़ना है, और सांस फूलते ही बाहर हो जाना है।

किताबें बतलाती है कि हर जगह देख ने के लिए वहाँ जाना नही पड़ता, हर चीज़ को पाना नही पड़ता, हर ऐहसास को जीना नही पड़ता। बस क़िताब के पन्नो में ही तुम हर एक चीज़ को महसुस कर सकते हो, किसी और के अनुभव से, किसी और कि नज़रो से।
ज़िन्दगी भी तो यही केहती है। कि एक ही जीवन में हम सबकुछ तो नही कर सकते।

क्यों ना तुम अपनी कहानी खुद जिओ और औरों से मिलकर उनके किस्से सुनो और उनका अनुभव महसूस करो। उनकी कहानी का हिस्सा बनो। जितना लिको खबसूरत लिखो, जितना जिओ खूबसूरत जिओ।

आखिर यही तो है ज़िन्दगी।
एक क़िताब। सफेद कागज़ पर काले अक्षर।

-श्याम सगर (नाचीज़)

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